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अष्टम परिच्छेद
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७. दूसरा लाखकुवाणिज्य -- लोहा, घावड़ी, नील, सज्जीखार, सावन, मनसिल, सोहागा तथा लाख, इत्यादि, ये सर्व लाखकुवाणिज्य हैं। प्रथम तो त्रस जीवों के समूह ही से लाख बनती है, अरु पीछे जब रंग काढ़ते हैं, तब तिस को अन्न से सड़ाते हैं, तब त्रस जीव की उत्पत्ति होती है, अरु महादुर्गन्ध युक्त रुधिर सरीखा वर्ण दीखाता है । तथा घावड़ी में त्रस जीव उपजते हैं, कुंथुये भी बहुत होते हैं, अरु यह मदिरा के अंग हैं । तथा नील को जब प्रथम सड़ाते हैं तब त्रस जीव उत्पन्न होते हैं, पीछे भी नील के कुण्ड में त्रस जीव बहुत उत्पन्न होते है, अरु नीला वस्त्र पहिरने से उस में जूं, लीखादि त्रस जीव उत्पन्न होते हैं । तथा हरताल, मनसिल को पीसती वक्त यत्न न करे तो मक्खी प्रमुख अनेक जीव मर जाते हैं ।
८. तीसरा रसकुवाणिज्य --- मदिरा, मांस, इत्यादि वस्तु का व्यापार महा पापरूप है, तथा दूध, दही, घृत, तेल, गुड़, खांड प्रमुख जो ढीली वस्तु है, इसका जो व्यापार करना सो रसकुवाणिज्य हैं। इस में अनेक जीवों का घात होता है । इस वास्ते यह व्यापार श्रावक न करे ।
९. चौथा केशकुवाणिज्य है- द्विपद जो मनुष्य, दास, दासी प्रमुख खरीद कर बेचते । तथा चौपद जो गाय, घोड़ा, भैंस प्रमुख खरीद के बेचते । तथा पक्षियों में तीतर, मोर, तोता, मैना, बटेरा प्रमुख बेचते । इस वाणिज्य में पाप