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जैनतत्त्वादर्श अप्यौषधकृते जग्धं, मधु श्वभ्रनिबंधनम् । भक्षितः प्राणनाशाय, कालकूटकणोऽपि हि ॥
[यो शा०, प्र० ३, श्लो० ३९] अर्थः-जो कोई रस की लंपटता से मधु खावे, उसकी बात तो दूर रही, परन्तु जो औषधि के वास्ते भी मधु खावे, सो यद्यपि रोगादि अपहारक है, तो भी नरक का कारण है। क्योंकि प्रमाद के. उदय से जीवन का अर्थी हो कर जो कोई कालकूट विष का एक कण भी खायगा, सो ज़रूर प्राण नाश के वास्ते होवेगा।
प्रश्न-मधु तो खजूर, द्राक्षादि रस की तरे मीठा है, सर्व इन्द्रियों को सुखकारी है, तो फिर इसको त्यागने योग्य क्यों कहते हो!
उत्तर:-सत्य है ! मधु मीठा है, यह व्यवहार से है, परंतु परमार्थ से तो नरक की वेदना का हेतु होने से अत्यंत कडुआ है। ___अब जो मंद बुद्धि जीव, मधु को पवित्र मान कर उस को देवस्नान में उपयोगी समझते हैं, तिन का उपहास्य शास्त्रकार करते है:
मक्षिकामुखनिष्ठतं, जंतुधातोद्भवं मधु । अहो पवित्रं मन्वाना, देवस्नाने प्रयुञ्जते ।।
[यो० शा०, प्र० ३, श्लोक ४१]