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________________ अष्टम परिच्छेद चास्ते श्रावक धर्मी को मधु न खाना चाहिये। अब मधु खाने वाले में पापीपना दिखाते हैं । यथाः भक्षयन् माक्षिकं क्षुदं, जंतुलक्षक्षयोद्भवम् । स्तोकजंतुनितम्या, शौनिकेभ्योऽतिरिच्यते ॥ [यो० शा० प्र० ३, श्लो० ३७] अर्थ:-लाखों शुद्र जन्तु-छोटे जीवों अथवा हाड़ रहित जीवों, उपलक्षण से बहुत जीवों का नव विनाश होता हैं, तब मधु उत्पन्न होता है। जब मधु भक्षण करता है, तब थोड़े पशु मारनेवाले कसाई से भी उसको अधिक पाप लगता है। क्योंकि जो भक्षक है, सो भी घातक है, यह बात ऊपर लिख आये हैं । तथा लोक में यह व्यवहार है, कि जूठा भोजन नहीं खाना । परन्तु यह जो मधु है, सो तो महाजूठ है । क्योंकि एक एक फूल से रस-मकरन्द पी करके मक्खिये वमन करती हैं, सो मधु है। इस वास्ते धर्मी पुरुष को जूठ न खानी चाहिये। यह लौकिक व्यवहार में प्रसिद्ध है। यदि कोई कहे कि मंधु तो त्रिदोष का दूर करने वाला है, इस लिये रोग दूर करने के वास्ते औषधि में भक्षण करे तो क्या दोष है ! इसके उत्तर में कहते हैं:
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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