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जैनतत्वादर्श
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पीछे हम क्यों कर जीव मान लेवें ?
उत्तर:- जो जैनमत के शास्त्रों को सत्य मानेगा, वो तो शास्त्रकारों के कथन को सत्य सत्य ही मानेगा, अरु जो जैन के शास्त्रों को सत्य नहीं मानता; वो चाहे सत्य माने, चाहे न माने । परन्तु हम आगम प्रमाण के बिना इस बात में और प्रमाण नहीं दे सकते हैं, क्योंकि वस्तु दो तरें की होती है - एक हेतुगम्य, दूसरी आगमगम्य । तो माखन, द्विदलादि में जो जीव उत्पन्न होते हैं; वे हेतुगम्य नहीं, किंतु आगमगम्य हैं । इस वास्ते जो आगम सर्वज्ञ, जिन, अर्हत वीतराग का कहा हुआ है, उसीका कहा मानना चाहिये । जेकर कोई पुरुष किसी भी शास्त्र को न माने, किन्तु आंखों से देखी वस्तु ही माने; तब तो नरक, स्वर्गादि जो अदृष्ट हैं, उनको भी न मानना चाहिये तथा परमेश्वर चौदवें तथा सातवें आसमान पर रहता है; तथा पुण्य पाप करने से जीव स्वर्ग और नरक में जाता है; यह भी न मानना पड़ेगा । इस वास्ते आगम प्रमाण भी मानना चाहिये; क्योंकि सर्व वस्तु हमारी दृष्टि में नहीं आती है ।
९. मधु अर्थात् सहत अभक्ष्य है । सहत जो है, सो अनेक जीवों का घात होने से उत्पन्न होता मधुमक्षण का है, यह तो परलोक विरोध दोष है । अरु मधु जुगुप्सनीय - निंदने योग्य है । मुख की
निषेध
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लालवत् यह इहलोक
विरुद्ध दोष है । इस