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नवम परिच्छेद
२६१ है, आगे अनंत जन्म लग दुःखी रहेगा। तथा जो निर्धन, अंघा, पांगला, असमर्थ और कोई काम करने में समर्थ नहीं, वो मीख मांग के खावे, तो तीसरी वृत्तिमिक्षा है । यह मिक्षा दुष्ट नहीं। इस भीख के मांगने से लघुतादि धर्म के दूषण नहीं होते हैं। क्योंकि जो इनको देता है, वो अनुकंपादया करके देता है, देनेवाला पुण्य उपार्जन करता है। इस वास्ते गृहस्थ को भीख न मांगनी चाहिये । धर्मी श्रावक को तो विशेष करके भीख न मांगनी चाहिये। मिक्षा मांगने से धर्म की निंदा, अरु धर्म की निंदा से दुर्लभबोधी होता है। भीख मांगने से उदर पूर्ण तो हो जाता है, परन्तु लक्ष्मी नहीं होती है। यतः
लक्ष्मीर्वसति वाणिज्ये, किंचिदस्ति च कर्षणे । अस्ति नास्ति च सेवायां, भिक्षायां न कदाचन ।। यह बात मनुस्मृति के चौथे अध्याय में भी लिखी है।
तथा जब वाणिज्य करे, तव कष्ट में सहायक, व्यापार और पूंजी का बल, स्वमाग्योदय, देश, काल, व्यवहार नीति देख के करे। वाणिज्य करने लगे, परन्तु
पहिले थोड़ा करे, पीछे लाम जाने तो यथायोग्य करे । कदाचित निर्वाह के न हुए खरकर्म भी करे, तो भी अपने आप को निंदता हुआ करे । विना देखा विना परीक्षा के सौदा न लेवे । जो सौदा संदेहवाला