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________________ अष्टम परिच्छेद १९३ २२. बत्तीस अनंतकाय सर्व अभक्ष्य हैं। क्योंकि सूई के अग्रमाग पर जितना टुकड़ा अनंतकाय अनंतकाय का का आता है, उस टुकड़े में भी अनंत जीव हैं, स्वरूप इस वास्ते अभक्ष्य है। तिस का नाम लिखते हैं:-१. भूमि के अंदर जितना कंद उत्पन्न होता है, सो सर्व अनंतकाय है, २. सूरणकंद, ३. वज्रकंद, ४. हरी हलदी, ५. अद्रक, ६. हरा कचूर, ७. सौंफ की जड़, तिस का नाम विराली कंद है, ८. सतावरवेल औषधि, ९. कुमार, १०. थोहर कंद, ११. गिलो, १२. लसन, १३. बांस का करेला, १४. गाजर, १५, लाणा, जिसकी सज्जी बनती है, १६. लोढी पानी सो लोढाकंद, १७. गिरमिर-गिरिकरनी कच्छ देश में प्रसिद्ध है। १८. किसलयपत्र-कोमल पत्र-जो नवा अंकुर उगता है। सर्व वनस्पति के उगते वक्त के अंकुर प्रथम अनन्तकाय होते हैं। पीछे जब बढ़ते हैं, तब प्रत्येक भी हो जाते हैं, अरु अनंतकाय भी रहते हैं। १९, खरसूयाकंदकसेरु, २०. थेग कंद विशेष है, तथा थेग नामक माजी, २१. हरे मोथ, २२. लवण वृक्ष की छाल, २३. खिलोड़ी,, २४. अमृतवेल, २५. मूली, २६. भूमिरुहा सो भूमिफोड़ा छत्राकार, जिनको वालक पद्दबहेड़े कहते हैं, तथा सुब्बा कहते है, २७. वथुवे की प्रथम उगते की भाजी, २८. करुहार, २९ सूयरवल्ली-जो जंगल में बड़ी वेलडी हो जाती है, ३० पलक की भाजी, ३१. कोमल आंबली, जहां
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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