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________________ नवम परिच्छेद २०६ एक प्रतिमा को वंदन करना, पूजा करनी, नैवेद्य चढ़ाना, यह उचित प्रवृत्तिवाले पुरुष को आशातना नहीं है । जैसे माटी की प्रतिमा की पूजा फूलादि रहित उचित है, अह सुवर्णादिक की प्रतिमा को स्नान विलेपनादि उचित है, तथा कल्याणक प्रमुख का महोत्सव एक ही बिंव का विशेष करके किया जाता है, परन्तु वो महोत्सव दूसरी प्रतिमाओं की आगातना का कारण नहीं होता है। जैसे धर्मी पुरुष को पूजते हुए और लोगों की आशातना नहीं। इस प्रकार की उचित प्रवृत्ति करते हुए जैसे आशातना नहीं होती है, तैसे ही मूल चित्र की विशेष पूजा करते भी आशातना नहीं होती है। जिनमन्दिर में जिनचिव की जो पूजा करते हैं, सो तीर्थंकरों के वास्ते नहीं करते हैं, भावों की वृद्धि के निमित्त करते हैं । जिस का उपादान समर जाता है, अरु दूसरों को होती है। कोई जीव तो श्रीजिनमन्दिर को बोध को प्राप्त हो जाता है, अरु कोई जीव जिनप्रतिमा का प्रशांतरूप देख के प्रतिबोध को प्राप्त हो जाता है, कोई पूजा की महिमा देख के, अरु कोई गुरु के उपदेश से प्रति - वोध को प्राप्त हो जाता है, इस वास्ते चैत्य - जिनबिंब की रचना बहुत सुंदर बनानी चाहिये । अरु अपनी शक्ति के अनुसार मुख्य बिंत्र की विशेष अद्भुत शोमा करनी चाहिये । किंतु अपने शुभ निमित्त से आत्मा वोध की प्राप्ति देख के प्रति तथा घर देहरासर तो अब भी पीतल, ताम्र, रूपामय
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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