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जैनतत्वादर्श करावने को समर्थ है। यदि पीतलादिक का बनाने का सामर्थ्य न होवे, तदा दांत आदि मय पीतल सिंगरफ की रंगावे, कोरणी विशिष्ट काष्ठादिमय करावे । घर चैत्य तथा चैत्य समुच्चय में प्रतिदिन सर्व जगे प्रमार्जन, तैलादि से काष्ठ को चोपडे, जिस से घुण न लगे, तथा खडिया से धवल करे। श्रीतीर्थकर के पंचकल्याणकादि का चिन्नाम करावे, समग्र पूजा के उपकरण समरावे । पड़दा, कनात, चन्द्रवा आदि देवे। ऐसे करे कि, जैसे जिनमंदिरादि की अधिक अधिक शोभा होवे। घर देहरे के ऊपर घोती प्रमुख न गेरे । घर देहरे की भी चौरासी आशावना टाले । पीतल पाषाणादिमय जो प्रतिमा होवे, तिन सर्व को एक अंगलहने से सर्व बिबो का पानी लहे। पीछे निरन्तर दूसरे सुकोमल अंगलहने से वारंवार सर्व अंगो पर फेर के पानी की गिलास बिलकुल रहने न देवे। ऐसे करने से प्रतिमा उज्ज्वल हो जाती है। जहां जहां प्रतिमा के अंगोपांग पर जल रह जावे, वहां तहां प्रतिमा के श्यामता हो जाती है । इस वास्ते पानी की स्निग्धता सर्वथा टाले । केसर बहुत अरु चन्दन थोड़ा ऐसा विलेपन करने से प्रतिमा अधिक अधिक उज्ज्वल हो जाती है।
तथा पंचतीर्थी, चौवीसी का पट्टादि में स्नात्र जल का प्रतिमाजी को परस्पर स्पर्श होने से आशातना होती है! ऐसी आशंका न करनी चाहिये, अशक्य परिहार होने से ।