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नवम परिच्छेद १. एक अहंत की प्रतिमा होवे, तिस का नाम व्यक्त है। २. एक ही पाषाणादिक में भरत ऐवत क्षेत्र की चोवीसी बनवावे, तिन का नाम क्षेत्रप्रतिमा है। ३. ऐसे ही एक सौ सित्तेर प्रतिमा को माहाल्य कहते हैं। ४. फूल की वृष्टि करनेवाला जो मालाधर देवता है, तिस का रूप पञ्चतीर्थी के ऊपर बनाते हैं। जिनप्रतिमा को न्हवण करते हुए पहिले मालाधर को पानी स्पर्श के पीछे जिनबिंव पर पड़ता है, सो दोष नहीं है। यह वृद्धों का आचरण है। इसी तरे चौवीसी गट्टे आदिक में भी जान लेना । ग्रन्थों में भी ऐसी ही रीति देखने में आती है। यहां भाज्यकार लिखते हैंजिनराज की ऋद्धि देखने वास्ते कोई भक्तजन एक प्रतिमा बनवाता है। उसको प्रगट पने अष्ट प्रातिहार्य, देवागम से सुशोभित करता है । दूसरा दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना के वास्ते तीनतीर्थी प्रतिमा बनवाता है। कोई भक्त पञ्चपरमेष्ठी के आराधनार्थ उद्यापन में पञ्चतीर्थी प्रतिमा भराता है। कोई चौवीस तीर्थङ्करों के कल्याणक तप उजमने के वास्ते भरतक्षेत्र में जो ऋषमादि चौवीस तीर्थकर हुए है, तिनके बहुमान वास्ते चौवीसी बनवाता है । कोई भक्ति करके मनुष्य लोक में उत्कृष्ट, एक काल में एक सौ सत्तर तीर्थकर विहरमान की एक एक सौ सत्तर प्रतिमा बनवाता है। तिस वास्ते तीनतीर्थी, पांचतीर्थी, चौवीसी आदिक का बनाना युक्तियुक्त है, यह पूर्वोक्त सर्व