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जैनतत्त्वादर्श अंगपूजा है। अथ अग्रपूजा लिखते हैं। रूपे के, सुवर्ण के चावल, धवल
सरसव प्रमुख अक्षरों करके अष्टमंगल का अप्रपूजा आलेखन करे। जैसे श्रेणिक राजा रोज की
रोज एक सौ आठ सोने के यवों से निकाल में भगवान की प्रतिमा के आगे साथिया करता था । अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना के वास्ते क्रम से पट्टादिक में चावलों के तीन पूंज करने, तथा एक भात प्रमुख मशन, दूसरा शक्कर गुड़ादि पान, तीसरा पकान फलादि खादिम, चौथा तंबोलादि स्वादिम, इनका चढ़ाना, तथा गोशीर्ष चन्दन के रस करी पंचांगुली तेल से मंडील आलेखानादि पुष्पप्रकार आरति प्रमुख करनी, यह सर्व अग्रपूजा की गिनती में है । यद्भाष्यम्
गंधवनवाइय लवणजलारत्तिआइ दीवाई। जं किच्चं तं सबंपि ओअरई अग्गपूआए ।।
नैवेद्य पूजा तो दिन दिन प्रति करनी सुखाली है, अरु इसमें फल भी मोटा है। कोरा अन्न साबत तथा रांधा हुआ चढावे । लौकिक शास्त्रों में भी लिखा है
धूपो दहति पापानि, दीपो मृत्युविनाशकः । . नैवेद्यं विपुलं राज्यं, सिद्धिदात्री प्रदक्षिणा ।।