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________________ जैनतत्त्वादर्श द्वारबिंव और समवसरण बिंबों की पूजा भी मूल बिंब की पूजा करने के पीछे, गंभारा से निकलती वक्त करनी चाहिये। परन्तु प्रवेश करते समय तो मूलबिंब की ही पूजा करनी उचित मालूम होती है। संघाचार में ऐसे ही लिखा है। इस वास्ते मूलनायक की पूजा, सर्व किंवों से पहिले और सविशेष करनी चाहिये । कहा भी है उचिअचं पूआए, विसेसकरणं तु मूलविंबस्स । जं पडइ तत्थ पढमं, जणस्स दिह्रो सहमणेणं ॥ [चेइ० महा०, गा० १९७] शिष्य प्रश्न करता है कि, चंदनादि करके प्रथम एक मूलनायक को पूजिये अरु दूसरे विबों की पीछे पूजा करनी, यह तो स्वामी सेवक भाव ठहरा, सो तो लोकनाथ तीर्थकर में है नहीं । क्योंकि एक बिब की बहुत आदर से पूजा करनी, अरु दूसरे बिंबों की थोडी पूजा करनी, यह बड़ी भारी आशातना मुझ को मालूम पड़ती है। गुरु ऊत्तर देते हैं। अहंत प्रतिमाओं में नायक सेवक की बुद्धि ज्ञानवंत पुरुष को नहीं होती है, क्योंकि सर्व प्रतिमाजी के एक सरीखा ही परिवार-प्रातिहार्य प्रमुख दीख पड़ता है। यह व्यवहार मात्र है कि, जो बिब पहिले स्थापन किया गया है, सो मूलनायक है। इस व्यवहार से शेष प्रतिमाओं का नायक भाव दूर नहीं होता है।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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