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________________ 494 जैनतत्वदर्श में जन्में, और आठ वर्ष घर में रहे, चौतालीस वर्ष समान साधुव्रत में रहे, और छत्तीस वर्ष युगप्रधान पदवी में रहे, सर्वायु अठासी वर्ष की भोगी। तथा इन आचार्य के समय में जावड़शाह सेठने शत्रुजय तीर्थ का संवत् 108 में तेरहवां बड़ा उद्धार करा, तिसकी वज्रस्वामीने प्रतिष्ठा करी / यह वज्रस्वामी महावीर से 504 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। इन वज्रस्वामी के समय में दशमा पूर्व और चौथा संहनन और चौथा संस्थान व्यवच्छेद हो गये। यहां श्री सुहस्तिसूरि आठमे और वज्रस्वामी तेरहवें पाट के बीच में अपर पटावलियों में-१. गुणसुन्दरसूरि, 2. कालिकाचार्य, 3. स्कंदिलाचार्य, 4. रेवतमित्रसूरि, 5. धर्मसूरि, 6. भद्रगुप्ताचार्य, 7. गुप्ताचार्य, यह सात क्रम से युगप्रधान आचार्य हुये। तथा श्रीमहावीर से पांच सौ तेतीस (533 ) वर्ष पीछे श्रीआचार्य रक्षितसूरिने सर्व शास्त्रों का अनुयोग पृथग् पृथग कर दिया। यह प्रबंध आवश्यक वृत्ति से जान लेना / तथा श्री महावीर से 548 वर्ष पीछे त्रैराशि के जीतनेवाले श्रीगुप्तसूरि हुये, तिनका प्रबन्ध उत्तराध्ययन की वृत्ति तथा विशेषावश्यक से जान लेना। जिसने त्रैराशिक मत निकाला तिसका नाम रोहगुप्त था, वो गुप्तसूरि का चेला था, जिसका उल्लक गोत्र था। जब रोहगुप्त गुरु के आगे हारा, और मत कदाग्रह न छोड़ा, तब अंतरंजिका नंगरी के बलश्री राजाने अपने राज्य से बाहिर निकाल दिया।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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