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अष्टम परिच्छेद प्रथम कंदर्पचेष्टा-मुखविकार, भूविकार, नेत्रविकार, हाथ की संज्ञा वतावे, पग को विकार की चेष्टा करके औरों को हसावे । किसी को क्रोध उत्पन्न हो जावे, कुछ का कुछ हो जावे, अपनी लघुता होवे, धर्म की निन्दा होवे, ऐसी कुचेष्टा करे ।
दूसरा मुखारिवचन अतिचार-मुख से मुखरता करे, असंवद्ध वचन बोले, जिससे दूसरों का मर्म प्रगट होवे, कष्ट में गेरे, अपनी लघुता करे, वैर वधे, ढीठ, लबाड, चुगलखोर, इत्यादि नाम धरावे, लोगों में लजनीय होवे, इसी तरे बहुत वाचालपना करना।
तीसरा भोगोपभोगातिरिक्त अतिचार-~यहां स्नान, पान, भोजन, चन्दन, कुंकुम, कस्तूरी, वस्त्र, आभरणादिक अपने शरीर के भोग से अधिक करने, सो अनर्थदण्ड है। इहां वृद्ध आचार्यों की यह संप्रदाय है कि, तेल, आमले, दही प्रमुख, जेकर स्नान के वास्ते अधिक ले जावे, तो लौल्यता करके स्नान वास्ते बहुत से लोग तालाव आदि में जायंगे। तहां पानी के पूरे, तथा अप्काय के जीवों की बहुत विराधना होवेगी। इस वास्ते श्रावक को इस प्रकार से स्नान न करना चाहिये। क्योंकि श्रावक के स्नान की यह विधि है-श्रावक को प्रथम तो घर में ही स्नान करना चाहिये, तिस के अभाव से तेल, आमले, आकादि से घर में ही सिर घिस करके, मैल गेर करके तालाव के कांठे पर बैठ के