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जैनतत्वादर्श प्रति तथा देहरा समारने के काम के निषेध करने के वास्ते मुखमंडपादिक में दूसरी नैषेधिकी करे । पीछे मूलबिंब' को तीन प्रणाम करके पूजा करे। भाष्यकार ने भी ऐसा कहा है कि, तीन निस्सही करके प्रवेश करी मण्डप में जिनेश्वर के आगे धरती पर हाथ गोडे स्थापन करके, विधि से तीन बार प्रणाम करे । तिस पीछे हर्ष से उल्लास युक्त हो करके मुखकोश बांध करके जिनप्रतिमा का निर्माल्य, फूल प्रमुख मोरपीछी से दूर करे। जिनमन्दिर का प्रमार्जन आप करे, अथवा औरों से करावे । पीछे जिनबिंब की पूजा विधि से करे । मुखकोश आठ पुड़ का करे, जिस से नासिका अरु मुख का निःश्वास निरोध होवे । बरसात में निर्माल्य में कुंथु आदि जीव भी होते हैं। इस वास्ते निर्मात्य मरु स्नान जल न्यारा न्यारा पवित्र स्थान में गेरे, गिरावे । ऐसे आशातना भी नहीं होती है। कलशजल से पूजा करता हुआ जैसी भावना मन में लावे, सो लिखते हैं।
हे स्वामिन् ! बालपन में मेरुशिखर पर सुवर्ण कलशों से इन्द्र आदि देवताओं ने आप को स्नान कराया था, सो धन्य थे, जिनोंने तुमारा दर्शन करा था, इत्यादि चिंतवना करके पीछे सुयल से वालकूची से जिनविंव के अंग पर से चन्दनादि उतारे । पीछे जल से प्रक्षालन करके दो अंगलूहनों से जिनप्रतिमा को निर्मल करे। अनन्तर पग, जानु, कर, अंस और मस्तक में यथाक्रम से नव अंग में श्रीचन्द