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नवम परिच्छेद नादि चर्चे, पूजा करे। कोई आचार्य कहते हैं कि, पहिले मस्तक में तिलक करके पीछे नवांग पूजा करनी। श्रीजिनप्रभसूरिकृत पूजाविधि ग्रन्थ में ऐसे लिखा है-सरस सुरभि चन्दन करी देव के दाहिने जानु, दाहिने स्कंध, निलाड, वाम स्कंध, वाम जानु, इस क्रम से पूजा करे, हृदय प्रमुख में पूजा करे, तब नव अंग की पूजा होती है। अंगों में पूजा करके पीछे सरस पांच वर्ण के प्रत्यग्र फूलों करके चन्दन सुगन्ध वास करी पूजे । जेकर पहिले किसी ने बड़े मण्डाण से पूजा करी होवे, अरु अपने पास वैसी सामग्री पूजा की न होवे, तव पहिली पूजा उतारे नहीं । क्योंकि विशिष्ट पूजा देखने से भन्यों को जो पुण्यानुबन्धी पुण्य होता था, तिस की अन्तराय हो जाती है। किन्तु तिसी पूजा को शोभनीक करे, यह कथन बृहद्भाग्य में है।
तथा पूजा के ऊपर जो पूजा करनी है, सो निर्माल्य के लक्षण न होने से निर्माल्य नहीं। क्योंकि जो भोगविनष्ट द्रव्य है, सोई निर्माल्य गीतार्थों ने कहा है। आभूषण वारं. वार पहराये जाते हैं, परन्तु निर्माल्य नहीं होते हैं। नहीं तो कषाय वस्त्र करके एक सौ आठ जिनप्रतिमा के अंग क्योंकर लहे ! इस वास्ते जिनबिंबारोपित जो वस्तु शोभा रहित, सुगंध रहित दीख पड़े, अरु भव्य जीवों को प्रमोद का हेतु न होवे, तिस ही को बहुश्रुत निर्माल्य कहते हैं। यह कथन संघाचारवृत्ति में है। चढ़े हुए चावलादि निर्माल्य
लक्षण न होननस्य गीतार्थों ने कहा होते हैं। नहीं तो