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जैनतत्त्वादर्श नहीं । कोई आचार्य निर्माल्य भी कहते हैं। तत्त्व तो केवली ही जाने कि वास्तव में क्योंकर हैं। ___चन्दन फूलादि से ऐसे पूजा करनी, जिस से भगवान् के नेत्र मुखादि ढके न जावें, अरु बहुत शोभनीक दीखें, जिस में देखनेवालों को प्रमोद और पुण्यादिक की वृद्धि होवे। तथा १. अंगपूजा, २. अग्रपूजा, ३. भावपूजा, यह तीन
प्रकार की पूजा है। तिन में जो निर्मात्य अंगपूजा दूर करना, प्रमार्जना करना, अंगप्रक्षालन
करना, वालवूची का व्यापार, पूजना, कुसुमांजलिमोचन, पञ्चामृतस्नान, शुद्धोदकधारा देनी, धूपित स्वच्छ मृद्गंध काषायकादि वस्त्र से अंगलूहन करना, कर्पूर कुंकुमादि मिश्र गोशीर्ष चन्दन विलेपन से आंगी रचनी, तथा गोरोचन, कस्तूरी से तिलक करना; पत्र, वेल, फूल प्रमुख की रचना करनी, बहुमोल रत्न, सुवर्ण, मोती, रूपे के, पुष्पादि के आमरण-अलंकार पहिराने । जैसे श्री वस्तुपाल ने अपने कराये हुये सवालक्ष विबों के तथा श्री शत्रुञ्जयतीर्थ में सर्व बिंबों के रल, सुवर्ण के आभरण कराये थे। तथा दमयंती ने पिछले भव में अष्टापद पर्वत पर चौबीस अहंतों के तिलक कराये थे। क्योंकि प्रतिमानी की जितनी उत्कृष्ट सामग्री होवे, उतने ही अधिक भव्य जीवों के शुभ भावों की वृद्धि होती है । तथा पहरावणी, चन्द्रवादि, विचित्र