________________ एकादश परिच्छेद 397 का वध न करना। क्योंकि गुरु पूज्य तो सदा दयावन्त और हिंसा से पराङ्मुख हैं, केवल हमारी परीक्षा लेने वास्ते यह आदेश दिया है। तब मैं ऐसा विचार करके बिना ही मारे कुछड़ को ले के गुरु के पास चला आया, और कुक्कड़ के न मारने का सबब सर्व गुरु को कह दिया। तब गुरुने मन में निश्चय कर लिया कि यह नारद ऐसे विवेकवाला है, सो स्वर्ग जायगा। तब गुरुजीने मुझ को छाती से लगाया, और बहुत साधुकार कहा। तथा वसु और पर्वत भी मेरे से पीछे गुरु के पास आये। और गुरु को कहते भये कि, हम कुक्कडों को ऐसी जगे मार के आये हैं कि, जहां कोई भी देखता नहीं था। तद गुरुने कहा कि, तुम तो देखते थे, तथा खेचर देखते थे, तब हे पापिठो ! तुमने कुकड़ क्यों मारे ! ऐसे कह कर गुरुने सोचा कि. पर्वत और बस के पढाने की महेनत मैंने व्यर्थ ही करी, मैं क्या करूं! पानी जैसे पात्र में जाता है, वैसा ही बन जाता है। विद्या का भी यही स्वभाव है। जव प्राणों से प्यारा पर्वत पुत्र और पुत्र से प्यारा वसु, यह दोनों नरक में जायेंगे, तो मुझे फिर घर में रह कर क्या करना है ! ऐसे निर्वेद से क्षीरकदंब उपाध्यायने दीक्षा ग्रहण करी-साधु हो गया। तिसके पद ऊपर पर्वत बैठा, क्योंकि व्याख्या करने में पर्वत बड़ा विचक्षण था।