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________________ 398 जैनतत्वादर्श और मैं (नारद ) गुरु के प्रसाद से सर्वशास्त्रों में पंडित हो कर अपने स्थान में चला आया। तथा अभिचन्द्र राजाने नो संयम लिया, और वसु राजा राजसिंहासन पर बैठा / वसु राजा जगत् में सत्यवादी प्रसिद्ध हो गया अर्थात् बासुराजा झूठ नहीं हैं, ऐसा प्रसिद्ध हो गया / वसुराजाने भी अपनी प्रसिद्धि को कायम रखने वास्ते सत्य बोलना ही अंगीकार किया। वसुराजा को एक स्फटिक का सिंहासन शुक्षपने ऐसा मिला कि सूर्य के चांदने में जब वसुराजा उसके ऊपर बैठता था, तब सिंहासन लोगों को बिलकुल नहीं दीख पड़ता था / इसी तरे वसुराजा आकाश में अधर बैठा दीख पड़ता था / तब लोगों में यह प्रसिद्धि हो गई कि, सत्य के प्रभाव से वसुराजा का सिंहासन देवता आकाश में थामे रखते हैं। तब सब राजा डर के बसुराजा की आज्ञा मानने लग गये। क्योंकि चाहे सच्ची हो चाहे झूठी हो, तो भी प्रसिद्धि जो है सो पुरुष के वास्ते जयकारी होती है। तब एकदा प्रस्ताव में नारद शुकिमती नगरी में गया। वहां जा कर पर्वत को देखा तो वो अपने शिष्यों को ऋगवेद पढा रहा है, और उसकी व्याख्या करता है। तब ऋग्वेद में एक ऐसी श्रुति आई " अजैर्यष्ठव्यमिति" | तब पर्वतने इस श्रुति की ऐसी व्याख्या करी कि अजा नाम छाग-बकरी का है; तिनों से यज्ञ करना-तिनको
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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