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________________ 396 जैनतत्वादर्श सो गये थे और उपाध्याय जागता था / हम छत ऊपर सोते थे। तब दो चारण साधु ज्ञानवान् आकाश में परस्पर बातें करते चले जाते थे कि, इस क्षीरकदंबक उपाध्याय के तीन छात्रों में से दो नरक में जायेंगे, अरु एक स्वर्ग में जायेगा। मुनियों का यह कहना सुन करके उपाध्यायजी चिन्ता करने लगे कि, जब मेरे पढाये हुए नरक में जाएंगे, तब यह मुझ को बहुत दुःख है। परन्तु इन तीनों में से नरक कौन जायगा ! और स्वर्ग कौन जायगा ! इस बात के जानने वास्ते तीनों को एक साथ बुलाया। पीछे गुरुजीने हम तीनों को एक एक पीठी का कुक्कड़ दिया, और कह दिया कि इन को ऐसी जगे में मारो जहां कोई भी न देखता होवे। पीछे वसु अरु पर्वत यह दोनों तो शून्य जगा में जा कर दोनों पीठी के बनाये कुकड़ों को मार लाये / और म उस पीठी के कुक्कड़ को ले कर बहुत दूर नगर से बाहिर चला गया, जहां कोई भी नहीं था। तहां जा कर खड़ा हुआ, चारों ओर देखने लगा और मन में यह तर्क उत्पन्न हुआ कि, गुरु महाराजने तो यह आज्ञा दीनी है कि, हे वत्स ! यह कुक्कड़ तू ने तहां मारना, जहां कोई देखता न होवे / तो यह कुक्कड़ देखता है, अरु मैं भी देखता हूं, खेचर देखते हैं, लोकपाल देखते हैं, ज्ञानी देखते हैं, ऐसा तो जगत् में कोई भी स्थान नहीं जहां कोई न देखता होवे, इस वास्ते गुरु के कहने का यही तात्पर्य है कि, इस कुक्कड़
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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