SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादश परिच्छेद 395 इस कथानक से यह भी मालूम हो जाता है कि, को ब्राह्मण लोग कहते हैं कि, आगे राक्षस यज्ञ विध्वंस कर देते थे, सो क्या जाने रावणादि जबरदस्त जैनधर्मी राना पशुवध रूप यज्ञ का करना छुड़ा देते थे। तब से ही ब्राह्मणों ने पुराणादि शास्त्रों में उन जबरदस्त जैन राजाओं को राक्षसों के नाम से लिखा है। तथा यह भी सुनने में आया है कि, नारदजीने भी माया के वश से जैनमत धार के वेदों की निन्दा करी थी। तो क्या जाने इस कथानक का यही तात्पर्य लोगों ने लिख लिया हो / पीछे रावणने नारद को पूछा कि, ऐसा पापकारी पशु वधात्मक यह यज्ञ कहां से चला है ! तर वेदमन्त्र का अर्थ नारदजीने कहा कि, शुक्तिमती नदी के और वसुराजा किनारे पर एक शुक्तिमती नगरी है सो वीसवें श्रीमुनिसुव्रतस्वामी हरिवंश तीर्थकर की औलाद में जब कितनेक राजा व्यतीत हो गये, तब अभिचन्द्र नामा राजा हुआ। तिस अभिचन्द्र राजा का वसुनामा वेटा हुआ। वो वसु महाबुद्धिमान, सत्यवादी, लोगों में प्रसिद्ध हुआ। तिस नगरी में क्षीरकदंवक उपाध्याय रहता था तिसका पर्वत नामक पुत्र था। वहां एक तो राजा का बेटा वसु, दूसरा पर्वत और तीसरा मैं ( नारद ) हम तीनों क्षीरकदंबक उपाध्याय के पास पढ़ते थे / एक समय हम तो तीनों जन पाठ करने के श्रम से रात्रि को
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy