________________ 'जैनतवादर्श जीवों को स्वर्ग मिलता होवे, तब तो थोड़े ही दिनों में यह जीवलोक खाली हो जावेगा। यह मेरा वचन सुन के यज्ञ की अग्नि की तरे प्रचन्ड हुए ब्राह्मण हाथ में लाठी, नदी के पूर से डर कर दीप में चला आता है, तैसे मैं दौड़ता हुआ तेरे पास पहुंचा हूं / हे रावण राना ! विचारे निरपराधी पशु मारे जाते हैं, तू तिनकी रक्षा करने में तत्पर हो / जैसे मैं तेरे शरण से बचा हूं ऐसे तू पशुओं को भी बचा | तब रावण विमान से उतर के मरुत राजा के पास गया / मरुत राजाने रावण की बहुत पूजा, भक्ति, आदर, सन्मान करा / तब रावण कोप में हो कर मरुव राजा को ऐसे कहता भया। अरे! तू नरक का देनेवाला यह यज्ञ क्या कर रहा है क्योंकि धर्म तो अहिंसारूप सर्वज्ञ तीर्थंकरोंने कहा है, सोई जगत् के हित का करनेवाला है। जब तुमने पशुओं को मार के धर्म समझा, तब तुम को हितकारक क्योंकर होवेगा ! इस वास्ते यह यज्ञ तुम को दोनों लोक में अहितकारक है। इसे छोड़ दो, नहीं तो इस यज्ञ का फल तेरे को इस लोक में तो मैं देता हूं, और परलोक में तुमारा नरक में वास होवेगा। यह सुन कर मरुत राजाने यज्ञ करना छोड़ दिया / क्योंकि रावण की आज्ञा उस वक्त ऐसी भयंकर थी कि, कोई उसको उल्लंघन नहीं कर सकता था।