SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादश परिच्छेद 393 तरे वे ब्राह्मणाभास अरराट शब्द करते हुए विचारे पशुओं को यज्ञ में मारते हुए, मैंने देखे। तब मैं आकाश से उतर के जहां मरुत राजा ब्राह्मणों के साथ में बैठा था, तहां आकर मरुत राजा को कहा कि, यह तुम क्या कर रहे हो ! तब मरुत राजाने कहा कि ब्राह्मणों के उपदेश से देवताओं की तृप्ति वास्ते और स्वर्ग वास्ते यह यज्ञ मैं पशुओं के बलिदान से करता हूं, यह महाधर्म है। तब नारद कहता है कि, मैंने मरुत राजा को कहा कि हे राजन् ! जो चारों वेदों में यज्ञ करना कहा है, वो यज्ञ मै तुम को सुनाता हूं। आत्मा तो यज्ञ का यष्टा अर्थात् करनेवाला है, तथा तपरूप अग्नि है; ज्ञानरूप घृत है, कर्मरूपी इन्धन है, क्रोध, मान, माया, अरु लोभादि पशु हैं, सत्य बोलने रूप यूप अर्थात् यज्ञस्तंभ है, तथा सर्व जीवों की रक्षा करनी यह दक्षिणा है, तथा ज्ञान, दर्शन अरु चारित्र, यह रत्नत्रयीरूप त्रिवेदी है। यह यज्ञ वेद का कहा हुआ है / ऐसा यज्ञ जो योगाभ्यास संयुक्त करे, तो करनेवाला सुकरूप हो जाता है। और जो राक्षस तुल्य हो के छागादि मार के यज्ञ करता है, सो मर के घोर नरक में चिरकाल तक महादुःख मोगता है। हे राजन् ! तू उत्तम वंश में उत्पन्न हुआ है, बुद्धिमान् और धनवान् है, इस वास्ते हे राजन् ! तू इस व्याघोचित पाप से निवृत्त हो जा। जेकर प्राणिवध से ही
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy