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जैनतत्त्वादर्श हाथ धूपन करके श्रेणीबन्ध स्नात्री श्रावक कुसुमाञ्जलि का. पाठ पढ़े । यथा
सयवचकुंदमालइ, बहुविहकुसुमाई पश्चवन्नाई। जिणनाहन्हवणकाले, दिति सुरा कुसुमाञ्जली हिट्ठा ।। यह कह कर देव के मस्तक पर पुष्पारोपण करे । गंधायडिअमहुयरमणहरझंका रसदसंगीआ । जिणचलणोवरि मुक्का, हरउ तुम्ह कुसुमाञ्जली दुरियं ।।
इत्यादि पाठ करके जिनचरणों पर एक श्रावक कुसुभाञ्जलि चढावे । सर्व कुसुमाञ्जलि के पाठों में तिलक करना, फूल, पत्र, धूपादि सर्व एकत्र करी चढाना। पीछे उदार मधुर स्वर करके जिस जिनेश्वर का नाम स्थापन करा होवे, तिस ही जिनेश्वर का जन्माभिषेक कलश का पाठ कहना । पीछे घी, इक्षुरस, दूध, दही, सुगन्ध जलरूप पञ्चामृत करी, स्नान करावे । स्नात्र के बीच में धूप देवे। स्नात्रकाल में भी जिनराज का शरीर फूलों करके शून्य न करना । वादिवेताल श्रीशांतिसूरि कहते हैं कि, जहां तक स्नात्र की समाप्ति न होवे, तहां तक भगवान् का मस्तक शून्य न रखना, निरन्तर पानी की धारा अरु उत्तम फूलों की वृष्टि भगवान् के मस्तक पर करे, तथा स्नान करती वक्त चामर, संगीत, तूर्याद्याडम्बर सर्व शक्ति से करे ।