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नवम परिच्छेद सर्वे श्रावक, जब स्नान कर चुकें, पीछे निर्मल जल की धारा देनी । तिसका पाठ यह है
अभिषेकतोयधारा, धारेव ध्यानमंडलाग्रस्य । भवभवनभित्तिभागान् , भूयोऽपि भिनक्तु भागवती ।।
पीछे अंग लहे। विलेपनादि पूजा, पहली पूजा से अधिक करनी। सर्व प्रकार का धान्य, पक्कान, शाक, विकृति, फलादि, करके नैवेद्य ढोवे । ज्ञानादि तीनों सहित तीन लोक के स्वामी भगवान् के आगे भक्त जन श्रावक तीन पुंज करके पीछे स्नात्रपूजा करे। पहिले बड़ा श्रावक तीन पुंन करे, पीछे छोटा श्रावक करे, पीछे श्राविका करे। क्योंकि जिनजन्ममहोत्सव में मी पहिला अच्युतेंद्र अपने देवता संयुक्त स्नान करता है, पीछे यथाक्रम से दूसरे इन्द्र स्नान करते हैं । स्नात्रजल को जेकर श्रावक अपने मस्तक में प्रक्षेप करे, तो दोष नहीं । यदुक्तं श्रीहेमचन्द्राचार्यैः श्रीवीरचरित्रे
अभिपेकजलं तत्तु, सुरासुरनरोरगाः । ववंदिरे मुहुर्मुहुः, सर्वांगं परिचिक्षिपुः ।।
तथा श्रीपश्नचरित्र के उनतीसवें उद्देशे में लिखा है किराजा दशरथ ने अपनी रानियों को स्नात्र जल भेजा है। तथा वृहदशांतिस्तोत्र में "शांतिपानीयं मस्तके दातव्यमि"त्यु