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जैनतत्वादर्श कम् । तथा सुनते हैं कि, जरासंध ने जब जरा विद्या छोड़ी, तब तिस करके पीड़ित निज सेना को देख के श्रीनेमिनाथ के कहने से श्रीकृष्ण ने धरणेन्द्र को आराधा। धरणेन्द्र ने पाताल में रही श्रीपार्श्व प्रतिमा शंखेश्वर पुर में ला करके तिस के स्नात्र का जल छिड़कने से सेना सचेत करी। तथा श्रीजिनदेशना के पीछे राजा प्रमुख जो चावलों की बली उछालते हैं, तिस में से आधे चावल धरती में पड़ने से पहेले देवता ले लेते हैं, तिसका अर्थ उछालनेवाला लेता है, अरु बाकी का चावल सर्व लोक लट लेते हैं। उस में से एक दाना भी जेकर मस्तक में रक्खे, तो सर्व रोग उपशांत हो जाते हैं। अरु छ महीने आगे को रोग न होवे, यह कथन आवश्यक शास्त्र में है। पीछे सद्गुरु की प्रतिष्ठी हुई बहुत सुन्दर वस्त्र की मोटी ध्वजा, बड़े उत्सवपूर्वक तीन प्रदक्षिणा करके विधि से देवे । सर्व संघ यथाशक्ति परिधापन का नैवेद्य प्रमुख चढ़ावे।
अब जो आरति, मंगलदीवा श्रीअरिहंतजी के सन्मुख
करना, सो लिखते हैं। मंगलदीवे के पास आरति अग्नि का पात्र स्थापन करना । तिस में लवण
जल गेरना । पीछेउवणेउ मंगलं वो, जिणाण मुहलालिजालसंवलिया। तित्थपवत्तणसमए, तियसविमुक्का कुसुमवुट्टी॥