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________________ 366 जैनतत्वादर्श पसारा। तब इंद्र ने ऋषभदेवजी का इक्ष्वाकु वंश स्थापन करा / तथा श्रीऋषभदेवजी के वंशवालों ने काशकार पिया, इस वास्ते गोत्र का नाम काश्यप हुआ / श्रीऋषमदेवजी के जिस जिस वय में जो जो काम उचित था, सो सो शक-इन्द्रने करा / यह अनादि से जो जो शक होते हैं, तिन का जीतकल्प है कि, प्रथम भगवान् के वयोचित सर्व काम करने। इस अवसर में एक लड़की लड़का, बहिन और भाई बाल्यावस्था में ताडवृक्ष के हेठ खेलते थे, विवाह वहां ताड़ के फल गिरने से लड़का मर गया। तब लड़की को नाभिकुलकरने यह ऋषभदेवजी की भार्या होवेगी, ऐसा विचार करके अपने पास रख लीनी / तिसका नाम सुनंदा था, और दूसरी जो ऋषभदेवजी के साथ जन्मी थी, तिस का नाम सुमंगला था / इन दोनों को साथ ऋषभदेवजी बाल्यावस्था में खेलते हुए यौवन को प्राप्त हुए। तब इन्द्रने विवाह का प्रारम्म करा / आगे युगल के समय में विवाह विधि नहीं थी, इस वास्ते इस विवाह में पुरुष के कृत्य तो सर्व इंद्रने करे, और स्त्रियों की तर्फ से सर्वकृत्य इन्द्रानियोंने करे / तहां से विवाहविधि जगत् में प्रचलित हुई। श्रीऋषभदेव को दोनों भार्याओं के साथ सांसारिक विषयसुख भोगते जब छ लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हुए, तब सुमंगला रानी के भरत
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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