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________________ ૨૨૨ जैनतत्त्वादर्श मन्दिर, जिनप्रतिमा बनी है, उसके पूजने से अविधि मार्ग की अनुमोदना से भगवन्त की आज्ञा का मंगरूप दूषण लगता है। इस प्रकार का कुविकल्प करना भी ठीक नहीं है क्योंकि इसमें आगम-प्रमाण है । तथाहि श्रीकल्पभाष्ये निस्सकडमनिस्सकडे अचेइए सबहिं थुई तिन्नि । वेलंबचइआणिअ, नाउं इक्किकिया वात्रि ।। व्याख्याः-एक निश्राकृत जो कि गच्छ के प्रतिबन्ध से बना हो, जैसे कि यह हमारे गच्छ का मन्दिर है। दूसरा अनिश्राकृत, सो जिस पर किसी गच्छ का प्रतिबन्ध नहीं है। इन सर्व जिनमन्दिरों में तीन थुइ पढनी। जेकर सर्व मन्दिरों में तीन तीन थुइ देता बहुत काल लगता जाने, तथा जिनमन्दिर बहुत होवें, तदा एक एक जिनमन्दिर में एक एक शुइ पढे । इस वास्ते सर्व जिनमन्दिरों में विशेष भक्ति करे। जिनमन्दिर में मकड़ी का जाला लग जाये, तो तिसके उतारने की विधि कहते हैं। जिनके सुपुर्द जिनमन्दिर होवे, तिनको साधु इस प्रकार निर्मर्सना-प्रेरणा करे, तुम लोग जिनमन्दिर की नौकरी खाते हो, तो सारसम्माल बयों नहीं करते हो! मकड़ी का जाला भी तुम नहीं उतारते हो । तथा जिनकी कोई सारसम्भाल न करे, तिन को असंविग्न-देवकुलिक कहते हैं। तिन मन्दिरों में जो
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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