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नवम परिच्छेद
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कराते हैं। स्नात्र के करने में सर्व प्रभावनादिक के करने से परलोक
काल में उनके अनुसार प्रकार विस्तार सहित पूजा में उत्कृष्ट मोक्षप्राप्ति रूप फल होता है । जैसे चौसठ इन्द्रों ने जिन -- जन्मस्नान करा है, तिस ही के अनुसार मनुष्य करते हैं । इस वास्ते इस लोक में पुण्य निर्जरा अरु परलोक में मोक्ष फल होता है । यह कथन राजप्रभीय उपांग में है। प्रतिमा भी अनेक प्रकार की है। तिनकी पूजा की विधि सम्यक्त्व - प्रकरण में ऐसे कही है
गुरुकारिआइ केह, अन्ने सयकारिआइ तं बिंति । विहिकारिआइ अन्ने, पडिमाए पूजणविहाणं ||
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व्याख्या - गुरु कहिये माता, पिता, दादा, पड़दादा प्रमुख तिनकी कराइ हुई प्रतिमा पूजनी चाहिये; कोई ऐसे कहते हैं । तथा कोई कहते हैं कि, अपनी कराई - प्रतिष्ठी हुईं पूजनी चाहिये । कोई कहते हैं कि, विधि से कराई प्रतिष्ठी प्रतिमा पूजनी चाहिये । इनमें यथार्थ पक्ष तो यह है कि, ममत्वरहित सर्व प्रतिमा को विशेष --- मेद रहित पूजना चाहिये । क्योंकि सर्व जगे तीर्थंकर का आकार देखने से तीर्थंकर बुद्धि उत्पन्न होती है । जेकर ऐसे न मानें, तब तो जिनबिंब की अवज्ञा से उसको दुरन्त संसार में भ्रमणरूप निश्चय यही दण्ड होवेगा ।
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ऐसा भी कुविकल्प न करना कि, जो अविधि से जित -