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________________ नवम परिच्छेद २२१ कराते हैं। स्नात्र के करने में सर्व प्रभावनादिक के करने से परलोक काल में उनके अनुसार प्रकार विस्तार सहित पूजा में उत्कृष्ट मोक्षप्राप्ति रूप फल होता है । जैसे चौसठ इन्द्रों ने जिन -- जन्मस्नान करा है, तिस ही के अनुसार मनुष्य करते हैं । इस वास्ते इस लोक में पुण्य निर्जरा अरु परलोक में मोक्ष फल होता है । यह कथन राजप्रभीय उपांग में है। प्रतिमा भी अनेक प्रकार की है। तिनकी पूजा की विधि सम्यक्त्व - प्रकरण में ऐसे कही है गुरुकारिआइ केह, अन्ने सयकारिआइ तं बिंति । विहिकारिआइ अन्ने, पडिमाए पूजणविहाणं || 1 व्याख्या - गुरु कहिये माता, पिता, दादा, पड़दादा प्रमुख तिनकी कराइ हुई प्रतिमा पूजनी चाहिये; कोई ऐसे कहते हैं । तथा कोई कहते हैं कि, अपनी कराई - प्रतिष्ठी हुईं पूजनी चाहिये । कोई कहते हैं कि, विधि से कराई प्रतिष्ठी प्रतिमा पूजनी चाहिये । इनमें यथार्थ पक्ष तो यह है कि, ममत्वरहित सर्व प्रतिमा को विशेष --- मेद रहित पूजना चाहिये । क्योंकि सर्व जगे तीर्थंकर का आकार देखने से तीर्थंकर बुद्धि उत्पन्न होती है । जेकर ऐसे न मानें, तब तो जिनबिंब की अवज्ञा से उसको दुरन्त संसार में भ्रमणरूप निश्चय यही दण्ड होवेगा । 1 ऐसा भी कुविकल्प न करना कि, जो अविधि से जित -
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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