SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ / एकादश परिच्छेद 389 उपदेशानुसार तिन ब्राह्मणों के स्वाध्याय करने वास्ते श्रीआदीश्वर-ऋषभदेवजी की स्तुति और श्रावक के धर्म का स्वरूपगर्मित, ऐसे चार आर्यवेद रचे / तिन के यह नाम रक्खे-१. संसारदर्शन वेद, 2. संस्थापनपरामर्शन वेद, 3. तत्त्वावबोध वेद, 4. विद्याप्रबोध वेद / इन चारों में सर्वनय, वस्तु के कथन संयुक्त तिन ब्राह्मणों को पढ़ाये। तब वे ब्राह्मण अरु पूर्वोक्त चार वेद आठमे तीर्थकर तक यथार्थ चले आये। परन्तु जब आठमे तीर्थकर का तीर्थ विच्छेद हुआ, तब तिन ब्राह्मणाभासोंने धन के लोभ से तिन वेदों में जीवहिंसा आदि की प्ररूपणा करके उलटपुलट कर डाले / जैनधर्म का नाम भी वेदों में से निकाल दिया, बल्कि अन्योक्ति करके "दैत्य दस्यु वेदवाह्य " इत्यादि नामों से साधुओं की निंदा गर्भित 1. ऋग्, 2. यजु, 3. साम, 4. अथर्व, ये चार नाम कल्पन कर दिये। तिन ब्राह्मणों में से जिनों ने तीर्थंकरों का उपदेश माना, उनोंने पूर्व वेदों के मंत्र न त्यागे। सो आज तक दक्षिण कर्णाटक देश में जैन ब्राह्मणों के कंठ हैं। ऐसा सुना और देखा भी है। तथा उन प्राचीन वेदों के कितनेक मंत्र मेरे पास भी हैं / यत उक्त आगमे सिरिमरह चक्कवट्टी, आरियवेयाणविस्सु उप्पत्तो। माहण पढणथमिणं, कहियं सुहज्झाण ववहारं // 1 // जिणतित्थे वुच्छिन्ने, मिच्छत्ते माहणेहि तेठविया / अस्संजयाणं पूआ, अप्पाणं काहिया तेहिं // 2 //
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy