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________________ १३२ जैनतस्वादर्श तरें चिंते इसका नाम अग्रशोच नामा आर्त्तध्यान है । अब रौद्रध्यान का स्वरूप कहते हैं । १. हिंसानंद रौद्रत्रस स्थावर जीवों की हिंसा करके मन में आनंद रौद्रध्यान के माने । तथा बहुत पाप करके सुंदर हाट, हवेली, चार भेद बाग प्रमुख बनावे । उसको देख के सराहें । तथा राजाओं राजा का पक्षी बन जब लोक प्रशंसा करें, तब मन में सुख माने कि, मैने कैसी हिकमत से बनाया है, मेरे समान अक्कल किसी में भी नही । तथा जब रसोई प्रमुख खाने की वस्तु बनावे, तब बहुत मसाले डाले, भक्ष्य वस्तु को अभक्ष्य सहरा बना के खावे । तथा मान के उदय से ऐसी जमणवारज्योनार करे कि, जिस को सर्व लोक की लड़ाई सुन कर खुशी माने । एक कर महिमा करे, दूसरे की निंदा करे । ने एक तलवार से सिंहादि को मारा है, प्रशंसा करे । तथा अपने दुश्मन को होवे, मुख मरोड़े, मूंछ पर हाथ फेरे, हाथ कहे कि, यह हरामखोर मेरे पुण्य से खोटी चितवना करके कर्म बांधे । परन्तु ऐसा न विचारे कि दूसरा कोई किसी का मारनेवाला नहीं है, उसकी आयु पूरी हो गई, इस वास्ते मर गया । एक दिन इसी तरे तूं भी मर जायगा, झूठा अभिमान करना ठीक नहीं। ऐसा विचार न करे । तथा अमुक योधा गहरे सुभट ! ऐसी मरा सुन कर राजी घसे, अरु मुख से मर गया; ऐसी ऐसी -
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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