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जैनतत्वादर्श घोषसूरिजी ने कहा है-एक पुण्यानुबन्धी पुण्य है, दूसरा पापानुबन्धी पुण्य है, तीसरा पुण्यानुबन्धी पाप है, चौथा पापानुबन्धी पाप है। यह चार प्रकार जो हैं, तिनको किंचित् विस्तारपूर्वक कहते हैं
१. जिस ने जिनधर्म की विराधना नहीं की, किंतु संपूर्ण रीति से आराधन किया है, सो संसार में-भवांतर में महासुखी धनाढ्य उत्पन्न होवे, भरत बाहुबल की तरे, सो पुण्यानुबन्धी पुण्य है।
२. जो पुरुष नीरोगादि गुणयुक्त होवे, अरु धनाढ्य भी होवे, परन्तु कोणिक राजा की तरे पाप करने में तत्पर होवे; यह पुण्य पूर्व भव में अज्ञान कष्ट करने से होता है, सो पापानुबन्धी पुण्य है।
३. जो पुरुष पाप के उदय से दरिद्री अरु दुःखी होवे, परन्तु श्रीजिनधर्म में बड़ा अनुरक्त होवे, धर्म करने में तत्पर होवे; सो पुण्यानुबन्धी पाप है । यह दुमकमहर्षिवत् पूर्व भव में लेश मात्र दया आदि सुकृत करने से होता है।
४. पापी प्रचण्ड कर्म के करनेवाला विधर्मी, निर्दय, पाप करके पश्चाचाप रहित, यह पुरुष दुःखी है, तो भी पार करने में तत्पर है, सो पापानुबन्धी पाप है, कालसौकरिकादिवत् ।
तथा बाह्य जो नव प्रकार की परिग्रह रूप ऋद्धि, अरु अन्तरंग, जो आत्मा की अनंत गुणरूप ऋद्धि है, सो पुण्या