________________ 400 जैनतत्वाद तब पर्वत की माताने पर्वत को छाना (गुप्त में ) कहा कि, हे पुत्र ! तू ऐसा झूठा कदाग्रह मत कर / क्योंकि मैंने भी इस श्रुति का अर्थ तीन वर्ष का धान्य ही सुना है, इस वास्ते तूने जो जिह्वाछेद की प्रतिज्ञा करी है, सो अच्छी नहीं करी / क्योंकि जो विना विचारे काम करता है, वो अवश्य आपदा में पड़ता है। तब पर्वत कहने लगा कि हे माताजी ! जो मैंने प्रतिज्ञा करी है, वो अब मैं किसी तरे से भी दूर नहीं कर सकता हूं। तब माता अपने पर्वत पुत्र के दुःख से पीडित हो कर वसु राजा के पास पहुंची। क्योंकि पुत्र के जीवितव्य (जीवन ) वास्ते कौन ऐसा है, जो उपाय न करे! जब वसुराजाने अपने गुरु की पत्नी को आते देखा तब सिंहासन से उठ के खड़ा हुआ, और कहने लगा कि, मैंने आज क्षीरकदंबक का दर्शन करा जो माता तुझ को देखा। अब हे माता ! कहो मैं क्या करूं ! और क्या दूं ! तब ब्राह्मणी कहने लगी कि, तू मुझे पुत्र की मिक्षा दे, क्योंकि विना पुत्र के मैंने हे पुत्र ! धन, धान्य का क्या करना है ! तब वसुराजा कहने लगा-हे माता ! मेरे को तो पर्वत पूजने और पालने योग्य है। क्योंकि गुरु की तरें गुरु के पुत्र के साथ भी वर्चना चाहिये, यह श्रुति का वाक्य है। तो फिर आज किस को काल ने क्रोध में आकर पत्र मेजा है, जो मेरे भाई पर्वत को मारा चाहता है ! इस वास्ते हे माता ! तू मुझे सर्व वृत्तांत कह दे। तब ब्राह्मणीने अपने