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जैनतत्वादर्श से सर्वथा पानी जम गया । तब तो चारों और समुद्र ही दीखने लगा। तिस लिये आना जाना बंद हो गया । और हमारे शास्त्रकार तो प्रथम आरे में तथा ऋषभदेव और भरतचक्रवर्ती के समय में जो जो इस भारतवर्ष का हाल था, सोई सदा से लिखते चले आये हैं। परंतु भरतक्षेत्र के बिगड़ तिगड़ के और का और बन जाने से किसी ने विस्तारपूर्वक वृत्तात ठीक ठीक नहीं लिखा । जे कर लिखा भी होवेगा, तो भी जैनमत के ऊपर बड़ी बड़ी विपत्तियें आई हैं, उनसे लाखों ग्रंथ नष्ट हो गये हैं। इस वास्ते हम ठीक ठीक सर्व वृत्तांत वता नहीं सकते हैं। परंतु जितनेक जैन मत के अंथ हमारे वांचने में आये हैं, उनमें से जो ठीक है, सो इस ग्रंथ में लिखते हैं।
इस समय सर्वक्षेत्र अदल बदल हो गये हैं। गंगा, सिंधु असलस्थान में नहीं बहतीं। क्योंकि उनका अगला प्रवाह तो समुद्र ने रोक लिया, और पीछे से पानी आना वंद हो गया। फिर जिस पर्वत से अधिक नदी की प्रवृत्ति मई, वो नदी उसी पर्वत से निकलती लोकों ने मान लीनी । इस वास्ते गंगा और सिंधु में क्षुल्लक हेमवंत पर्वत से जल आना बंद हो गया, नाम मात्र से गंगा सिंधु रह गईं। और नगरियों में वनिता नगरी की कल्पना पर अयोध्या बनाई गई। काबूल के परे तक्षिला अर्थात् बाहुबल की नगरी की कश्पना करी गई। इस समय में वो तक्षिला भी नहीं रही।