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जैनतरवादर्श
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वाम स्वर चलते हुए मौन से देवपूजा करे । तीन नैषेधिकीकरण, तीन प्रदक्षिणा, इत्यादि विधि से शुचि पाट के ऊपर पद्मासनादि सुखासन पर बैठ के, चन्दन के भाजन से चंदन ले कर दूसरी कटोरी में तथा हथेली में लेकर मस्तक में तिलक करके हस्तकंकण, श्रीचंदनचर्चित, धूपित हाथ करी जिन अर्हत की पूजा करके अर्थात् १. अंगपूजा, २. अग्रपूजा, ३. भावपूजा आदि से पूजा करके प्रथम जो प्रत्याख्यान करा था, सो यथाशक्ति देव की साक्षी में उच्चारण करे, तब पीछे विधि से बडे पंचायती मन्दिर में जा कर पूजा करे । सो इस विधि से करे :
यदि राजादि महर्द्धिक होवे, सो तो ऋद्धि, सर्वदीप्ति, सर्वयुक्ति, सर्वसैन्य, सब उद्यम से जिनमत की प्रभावना के वास्ते महा आडम्बर पूर्वक जिनमन्दिर में पूजा करने को जावे । जैसे दशार्णभद्र राजा श्रीमहावीर भगवंत को वंदना करने गया था, तैसे जावे ।
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अरु जो सामान्य ऋद्धिवाला होवे, सो अभिमान रहित लोकोपहास्य को त्याग के यथायोग्य आडंबर – भाई, मित्र, पुत्रादिकों से परिवृत हो कर जावे । ऐसे जिनमंदिर में जा कर -~१. पुष्प, तंबोल, सरस, दुर्वादि त्यागे । २. छुरी, पावड़ी, मुकुट, हाथी प्रमुख सचिताचित वस्तु शरीर के भोग की त्यागे । ३. मुकुट वर्ज के शेष आभरणादि अचित्त वस्तु न त्यागे, अरु एक बडे वस्त्र का उत्तरासंग करे ।