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________________ 526 जैनतत्त्वादर्श स्वजन, देहादि में भी ममत्व रहित हो, इस वास्ते आप को सोना, चांदी देना तो ठीक नहीं। परन्तु मेरे मकान में जैनमत के पुराने पुस्तक बहुत हैं, सो आप लीजिये, और मेरे ऊपर अनुग्रह करिये। जब बादशाह का बहुत आग्रह देखा, तब गुरुजीने सर्व पुस्तक ले के आगरा नगर के ज्ञानभण्डार में स्थापन कर दिए। तब एक प्रहर तक गुरुजी धर्मगोष्ठि करके बादशाह की आज्ञा ले के बड़े आडम्बर से ऊपाश्रय में आए। उस वक लोकों में जैनमत की खूब प्रभावना हुई। तिस वर्ष आगरे नगर में चौमासा करके सोरीपुर नगर में नेमिजिन की यात्रा वास्ते गये। तहां श्री ऋषभदेव और नेमिनाथजी की बड़ी और बहुत पुरानी, इन दोनों प्रतिमा और तत्काल के बनाए नेमिनाथ के चरणों की प्रतिष्ठा करी / फिर आगरे में शा० गानसिंह कल्याणमल्ल के बनवाये हुए चितामणि पार्श्वनाथादि बिंबों की प्रतिष्ठा करी, सो आज तक आगरे में चिंतामणि प्रार्थनाथ प्रसिद्ध है। पीछे गुरुजी फिर फतेपुर नगर में गए और अकबर बादशाह से मिले तहां एक प्रहर धर्मगोष्ठी धर्मोपदेश करा / तब बादशाह कहने लगा कि, मैंने दर्शन के वास्ते उत्कंठित हो कर आप को दूर देश से बुलाया है, और आप हम से कुछ भी नहीं लेते हैं। इस वास्ते आप को जो रुचे सो मेरे से मांगना चाहिये। जिस से मेरे मन का मनोरथ सफल होवे / तब सम्यग् "विचार
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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