________________ द्वादश परिच्छेद एकदा कदाचित् प्रधान पुरुषों के मुख से अकबरशाहने हीरविजयसूरि के निरुपम शम, दम, संवेग, अकवर राजा से वैराग्यादि गुण सुन के बादशाह अकबरने भेट अपने नामांकित फरमान भेज के बहुमान पुरस्सर गंधार वंदर से आगरे के पास फते. पुर नगर में दर्शन करने को बुलाया / तब गुरुजी अनेक भन्यजीवों को उपदेश देते हुये, क्रम से विहार करते हुये विक्रम संवत् 1639 में ज्येष्ठवदि त्रयोदशी के दिन वहां आए / तिस समय में बादशाह के अवुलफजल नामक शिरोमणि प्रधान द्वारा उपाध्याय श्री विमलहर्षगणि प्रमुख अनेक मुनियों से परिवरे हुए बादशाह को मिले / तिस अवसर में बादशाहने बड़ी खातर से अपनी सभा में विठाया, और परमेश्वर का स्वरूप, गुरु का स्वरूप अरू धर्म का स्वरूप पूछा, और परमेश्वर कैसे प्राप्त होवे : इत्यादि धर्मविचार पूछा। तब श्री गुरुने मधुर वाणी से कहा कि जिस में अठारह दूपण न होवें, सो परमेश्वर है। तथा पंचमहावतादि का धारक गुरु है, और आत्मा का शुद्ध स्वभाव जो ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप है, सो धर्म है / तब अकवरगाहने ऐसा धर्मोपदेश सुन के आगरा से अजमेर तक प्रतिकोश कुंवा मीनार सहित बनाए, और जीवहिंसा छोड़ के दयावान् हो गया / तब अकबरशाह अतीव तुष्टमान हो के कहने लगा कि, हे प्रभु ! आप पुत्र, कलत्र, धन,