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________________ 524 जैनतत्वादर्श शुक्लपंचमी के दिन नारदपुरी में श्रीवरकाणक पार्श्वनाथसनाथे नेमिजिन प्रासाद में वाचक पद, 1610 में सिरोही नगरे सूरिपद / तथा जिनका सौभाग्य, वैराग्य, निःस्पृहतादि गुणों को बचनगोचर करने को बृहस्पति भी चतुर नहीं था / तथा श्री स्तंभतीर्थ में जिनों के रहने से श्रद्धावन्तों ने एक क्रोड़ रूपक प्रभावनादि धर्मकृत्यों में खरच करा / तथा जिनों के चरण विन्यास के प्रतिपद में दो मोहर अरु एक रूपक मोचन करा, और जिनों के आगे श्रद्धालुओंने मोतियों से साथिये करे, तथा जिनोंने सिरोही नगर में श्रीकुंथुनाथ बिंबों की प्रतिष्ठा करी, तथा नारदपुर में अनेक सहस्रबिंबों की प्रतिष्ठा करी / तथा जिनों के विहारादि में युगप्रधान अतिशय देखने में आता था। तथा अहमदावाद में लुंके मत का पूज्य ऋषि मेघजी नामा था, तिसने अपने लुंके मत को दुर्गति का हेतु जान कर रज की तरे आचार्य पद छोड़ के पच्चीस यतियों के साथ सकल राजाधिराज बादशाह श्री अकबर राजा की आज्ञापूर्वक बादशाही बाजिंत्र बजते हुये महामहोत्सव से श्री हीरविजयसूरिजी के पास दीक्षा लीनी / ऐसा किसी आचार्य के समय में नहीं हुआ था। तथा जिनों के उपदेश से अकबर बादशाहने अपने सर्व राज्य में एक वर्ष में छ महिने तक जीवहिंसा बन्द करी, बलिया छुडाया। इस का विशेष स्वरूप देखना होवे, तो हीरसौभाग्यकाव्य में से देख लेना। और संक्षेप से यहां मी लिखते हैं
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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