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जैनतत्त्वादर्श वाणिज्यादि कला का ग्रहण करे, अर्थात् विद्या अध्ययन करे । क्योंकि - जो विद्या नहीं
सीखता है सो मूर्ख रहता है। पग पग में पराभव पाता है। अरु विद्यावान् परदेश में भी माननीय होता है। इस वास्ते सर्व प्रकार की कला सीखनी चाहिये। क्या जाने क्षेत्रकाल के विशेष से किस कला से आजीविका करनी पड़े ! जिसने सर्वकला सीखी होवे, उसने भी पूर्वोक्त सात प्रकार की आजीविका में से जिस करके सुख से निर्वाह होवे, सो आजीविका करनी। जेकर सर्व कला सीखने में समर्थ न होवे, तब जिस कला से अपना सुखपूर्वक निर्वाह होवे, अरु परलोक में अच्छी गति होवे, सो कला सीखे । पुरुष को दो बातें अवश्य सीखनी चाहिये, उसमें एक तो जिस से सुखपूर्वक निर्वाह होवे सो, अरु दूसरी जिस से मर के अच्छी गति में जावे, यह दो बातें अवश्य सीखनी। तीसरा विवाह द्वार–सो विवाह भी त्रिवर्ग शुद्धि का
हेतु होने से उचित ही करना चाहिये । विवाह विवाह अन्य गोत्रवाले से करना चाहिये ।
तथा समान कुल, सदाचारादि-शील, रूप, वय, विद्या, धन, वेष, भाषा, प्रतिष्ठादि गुणों करके जो अपने समान होवे, तिसके साथ विवाह करे । अन्यथा अवहेलना, कुटुंबकलहादि अनेक कलंक उत्पन्न होते हैं,