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दशम परिच्छेद
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भरणादि देवे । तथा किसी साधर्मी को कोई कष्ट पडे, तब अपना धन खरच के उसका कष्ट दूर करे । जेकर कोई साधर्मी निर्धन होवे, तो धन से सहाय करे, परदेश से देश में पहुंचावे । तथा धर्म से सीदते को जैसे बने तैसे स्थिर करे । जेकर कोई साधर्मी प्रमादी होवे, तो तिसको प्रेरणादि करे । साधर्मियों को विद्या पढावे, पूछना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा में यथायोग्य जोडे । तथा धर्म करने के वास्ते साधारण पौषधशालादि करावे । तथा श्राविका के साथ भी श्रावकवत् वात्सल्य करे क्योंकि श्राविका भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शील, संतोषवाली होती है। तथा सघवा, विधवा जो जिनशासन में अनुरक्त होवे वो, सर्व को साधर्मिकपने मानना चाहिये । तिसका भी माता की तरें, बहिन की तरें, वेटी की तरें हित करना चाहिये । बहुत करके राजा का तो अतिथिसंविभाग व्रत साधर्मिवात्सल्य करने से ही हो सकता है। क्योंकि मुनि को तो राजपिंड लेना ही नहीं है। इस वास्ते श्रीभरतचक्री तथा दण्डवीर्य राजादिकों ने ऐसे ही करा है । तथा श्रीसंभवनाथ अर्हत् के जीव ने तीसरे भव में घातकीखण्ड ऐरावतक्षेत्र में क्षेमापुरी नगरी में, विमलवाहन राजाने महादुर्भिक्ष में सकल साधर्मिकादिकों को भोजनादिक देने से तीर्थहरनाम कर्म का उपार्जन करा है । तथा देवगिरि, मांडवगढ़ में शाह जगतसिंहने तथा थिरापद्र नगर में श्रीमाल आमूने तीन