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जैनतत्त्वादर्श सौ साठ साधर्मियों को धन दे के अपने तुल्य करा, तथा शाह सारंगादि अनेक पुरुषों ने बड़ा २ साधर्मिवात्सल्य करा है। तीसरी यात्राविधि कहते हैं। वर्ष वर्ष में जघन्य से एक
_यात्रा तो अवश्य करनी चाहिये, यात्रा भी यात्राविधि तीन तरें की है-एक अट्ठाईयात्रा, दूसरी
रथयात्रा, तीसरी तीर्थयात्रा । तिसमें अट्ठाई में विस्तार सहित सर्व चैत्यपरिपाटी करे, इसको चैत्ययात्रा भी कहते हैं। तथा रथयात्रा श्रीहेमचन्द्रसूरिकृत परिशिष्ट पर्व में जैसी संपति राजाने करी है, तैसे करे । तथा महापद्म चक्रवर्ती ने जैसे माता के मनोरथ पूरन के वास्ते करी है, तैसे करे । तथा जैसी कुमारपाल राजाने रथयात्रा करी तैसे करे ।
तीसरी तीर्थयात्रा का स्वरूप लिखते हैं। तहां श्रीशत्रुजय, रैवतादि तीर्थ, तथा तीर्थकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण, मरु विहारभूमि, यह सर्व प्रभूत भव्यजीवों को शुभभाव का संपादक है। इस वास्ते संसार से तारने का कारण होने से इसको तीर्थ कहना चाहिये । तीथों में जाने से सम्यक्त्व निर्मल होता है। ___अब जिनशासन की उन्नति करने के वास्ते जिस विधि से यात्रा करे, सो विधि यह है । चलने के स्थान से लेकर यात्रा करे, वहां तक एक बार भोजन करे, दूसरा सचित्त परिहार, तीसरा भूमिशयन, चौथा ब्रह्मचारी, पांचमा सर्व