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जैनतत्वादर्श
कागज, दबात, लेखिनी, पुस्तकादिक देवे। तथा और भी जो संयम का उपकारी उपकरण होवे, सो मी देवे । ऐसे ही प्रातिहारक, पीठ, फलक, पट्टिकादि सर्व साधुओं को देवे। ऐसे ही श्रावक, श्राविकारूप संघ की भक्ति यथाशक्ति से पहरावणादि करके सत्कार करे, देवगुरु के गुण गाने. वाले गंधर्वादिक याचकों को भी यथोचित दान देवे। संघ की पूना तीन प्रकार की है-एक जघन्य, दूसरी मध्यम, तीसरी उत्कृष्ट । तिस में सर्व दर्शन सर्व संघ को करे, सो उत्कृष्टी पूजा, तथा सूत, मात्रादि देवे, तो जघन्य पूना । तथा शेष सर्व मध्यम पूजा है। तहां अधिक खरच करने की शक्ति न होवे, तो गुरु को सूत, मुखवत्रिका देवे, तथा एक दो तीन श्रावक, श्राविका को सोपारी प्रमुख वर्ष वर्ष प्रति देवे। इस रीति से संघपूजा करे, तो निर्धन को मी महाफल है । यतः
संपत्ती नियमाशक्ती, सहनं यौवने व्रतम् । दारिद्रये दानमध्यल्पं, महालाभाय जायते ।। दूसरा साधर्मिकवात्सल्य करे। सो सर्व साधर्मियों की
___ अथवा कितनेक की यथाशक्ति यथायोग्य साधर्मिवात्सल्य भक्ति करे। तथा पुत्र के जन्मोत्सव में, विवाह
में तथा और किसी कार्य में पहिले तो साधर्मियों को निमंत्रणा करके विशिष्ट भोजन, तांबूल, वस्त्रा