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________________ 536 जैनतत्त्वादर्श में पंडित पद, 1710 में उपाध्याय पद, 1713 में भट्टारक पद, 1749 में स्वर्गगमन हुआ, इनों के समय में मुहबंधे ढूंढियों का पंथ निकला, तिसकी उत्पत्ति ऐसे है: सुरत नगर में वोहरा वीरजी साहुकार दशाश्रीमाली बसता था। तिसकी फूला नामे बालविधवा ढूंढक मत की एक बेटी थी। तिसने एक लवजी नामा उत्पत्ति लड़का गोदी लिया। तिस लवजी को लुके के उपाश्रय में पढ़ने वास्ते मेजा। तहां यतियों की संगत से वैराग्य उत्पन्न हुआ, और लुंके के यति बजरंगजी का शिष्य हुआ। तब दो वर्ष पीछे अपने गुरु को कहने लगा कि, जैसा शास्त्रों में साधु का आचार है, वैसा तुम क्यों नहीं पालते हो ! तब गुरुने कहा कि, पंचमकाल में शास्त्रोक्त सर्व क्रिया नहीं हो सकती है। तब लवजीने कहा कि तुम भ्रष्टाचारी मेरे गुरु नहीं, मैं तो आप ही फिर से संयम लूंगा / इस तरे का क्लेश करके ऋषि लबजीने लुके मत की गुरु शिक्षा छोड़ के अपने साथ दो यति और लिए / तिस में एक का नाम भूणा, दूसरे का नाम सुखजी था / इन तीनों ही ने अपने को आप ही दीक्षित करा, और मुंह के ऊपर कपडे की पट्टी बांधी। तब इन का नवीन वेष देख के गामों में किसी श्रावकने इन के रहने को जगा न दीनी / तब यह. उजडे हुये मकानों में जा रहे। गुजरात देश
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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