SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम परिच्छेद १५१ तीसरा अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय उच्चारपासवण भूमि अतिचार - सो लघुशंका, बड़ीशंका, परिठवने की भूमि का नेत्रों से अवलोकन न करे, अरु अवलोकन करे, तो भी अलसुपलसु करके काम चलावे, जीवयत्ना बिना करे परिठवे तो तीसरा अतिचार लगे । दुप्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमि भूमिका को उच्चारपूंजे, तो भी यद्वा अप्पमज्जिय चौथा अतिचार - सो जहां मूत्र, विष्ठा करे, उस प्रस्रवण करने से पहिले पूंजे नहीं, जेकर तद्वा पूंजे, परन्तु यत्न से न पूंजे । पोसह विहिविवरीए पांचमा - अतिचार सो पौषध करे; जैसे कि प्रभात में क्षुधा लगे, तब पारणे की चिंता अथवा अमुक वस्तु का आहार करना है, तहां जाना पड़ेगा, में अमुक रसोई करूंगा । तथा अमुक कार्य अमुक पर तगादा करूंगा । तथा प्रभात में पौषध पार के अच्छी तरें तेल मर्दन कराऊंगा, अच्छे गरम पानी से स्नान करूंगा, तथा अमुक पोशाक पहरूंगा, स्त्री के साथ भोग करूंगा, इत्यादि सावद्य चिंतना करे । तथा संध्या समय में पौषध के मंडल शोधन न करे, सर्व रात्रि सोता रहे, विकथा करे । पौषध के अठारह दूषण हैं, सो वजें नहीं । सो अठारह दूषण लिखते हैं: 1 १. विना पोसे वाले का लाया हुआ जल पीवे । २. पौषध
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy