________________
१५०
जैनतस्वादर्श
न्यूनाधिक भी नहीं करते थे । और गुरु भी अतिशय ज्ञान
पौषध का आदेश
के प्रभाव से योग्यता जान कर देश, सर्व देते थे । तथा श्रावक कदाचित् भूल भी
जाते थे, तो भी काल में तो ऐसे
लेते थे । परन्तु इस
प्रभाव से जड़बुद्धि
तत्काल प्रायश्चित्त ले उपयोगी जीव हैं नही, दुषमकाल के जीव बहुत हैं । इस वास्ते पूर्वाचार्यो ने उपकार के वास्ते आहारपौषध तो दोनों करने, अरु शेष तीन पौषध जीतव्यवहार के अनुसार निषेध कर दिये हैं । यही प्रवृत्ति वर्त्त - मान संघ में प्रचलित है । पौषध श्रावक को जरूर करना चाहिये, कारण कि कर्मरूप भावरोग की यह औषधि हैं, ताते जब पर्वदिन आवे, तब ज़रूर पौषध करे । इस के पांच अतिचार टाले, सो कहते हैं:
प्रथम अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सिज्जासंथारक अतिचार — जिस स्थान में पौषध संस्थारक करा है, तिस भूमि की तथा संथारा की पडिलेहणा न करे. एतावता संथारे की जगा अच्छी तरे निगाह करके नेत्रों से देखे नहीं अरु कदापि देखे, तो भी प्रमाद के उदय से कुछ देखी कुछ न देखी जैसी करे ।
दूसरा अप्पमज्जिय दुष्पमज्जिय सिज्जासंथारक अतिचार - संथारा को रजोहरणादि करके पूंजे नहीं, कदापि पूंजे, तो भी यथार्थ न पूंजे, गड़बड़ कर देखे, जीवरक्षा न करे, तो दूसरा अतिचार लगे ।