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अष्टम परिच्छेद आहार अपना कोई सम्बन्धी अथवा सेवक ले आवे, तो भी पूर्वोक्त रीति से आहार करके बरतन पीछे दे देवे। पीछे धर्मक्रिया में प्रवत्ते । तिसको देश से पौषध कहते हैं । वथा जो चउविहार करके पौषध करे, सो सर्व से पौषध कहिये। । दूसरा शरीरसत्कार पौषध-सर्वथा शरीर का सत्कारस्नान, धोवन, धावन, तैलमर्दन, वस्त्राभरणादि शृंगार प्रमुख कोई भी शुश्रूषा न करे। साधु की तरे अपरिकर्मित शरीर रहे। तिसको सर्वथा शरीरसत्कार पौषध कहते हैं। तथा पौषध में हाथ, पग प्रमुख की शुश्रूषा करनी, तिसका आगार रक्खे, उसको देशसत्कार पौषध कहते हैं।
तीसरा अब्रह्मपौषध-त्रिकरण शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पाले, वो सर्वथा ब्रह्मचर्य पौपध है; अरु मन, वचन, दृष्टि प्रमुख का आगार रक्खे। अथवा परिमाण रक्खे, सो देश से ब्रह्मचर्य पौषध है। __चौथा सर्वथा सावध व्यापार का त्याग-सर्व से अव्यापार पौषध है । अरु जो एकादि व्यापार का आगार रक्खे, सो देश से अव्यापार पौषध जानना ।
एवं चार प्रकार के पौषध के दो दो मेद है। सो प्रथम जब आगम व्यवहारी गुरु होते थे, अरु श्रावक भी शुद्ध उपयोगवाले होते थे। तव जो जो प्रतिज्ञा लेते थे, सो सो प्रतिज्ञा अखण्डित तैसी ही पालते थे, भूलते नहीं थे, अरु
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