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'जैनतसादर्श . उचित स्थान भी स्वचक्र, परचक, परस्पर विरोध,
दुर्मिक्ष, मारी, हैजा, प्रजाविरोध, अनादि वस्तुक्षय, इत्यादि कारण हो जावें, तो तत्काल छोड़ जाना चाहिये। नहीं तो त्रिवर्ग की हानि हो जावेगी। जैसे आगे तुरकों के भव से लोक दिल्ली को छोड़ के गुजरातादि देशों में जाने से सुखी और धनी हुए हैं । तथा क्षितिप्रतिष्ठित, चनकपुर, ऋषमपुर आदि उजड़ने की व्यवस्था भी जान लेनी, जोकि इस रीति से है-क्षितिप्रतिष्ठित उजड़ के चनकपुर वसा, अरु चनकपुर उजड़ के ऋषभपुर वसा, अरु ऋषभपुर उजड़ के राजगृह वसा, तथा राजगृह उजड़ के चंपा वसी, अरु चम्पा उजड के पाटलीपुत्र अर्थात् पटना वसा । ऐसे श्रावक भी पूर्वोक्त हानि जाने तो नगर को छोड़ के और जगे जा कर बसे ।।
तथा रहने का घर भी अच्छे पड़ोसियों के पास करे, परन्तु वेश्या, तिर्यंच, मिक्षाचर, श्रमण, बौद्ध, तापसादि ब्राह्मण, मसाण, कोटवाल, माछी, जुगारी, चोर, नट, नाचने. बाला, भाट, कुकर्मी, इत्यादिकों के पड़ोस में घर हाट न लेवे, न वसे । जेकर देहरे के पास रहे, तो हानि होवे । तथा चौक में, धूर्त के अरु प्रधान के पास रहे, तो धन अरु पुत्र दोषों का क्षय होवे। तथा मूर्ख, अधर्मी, पाखण्डी, पतित, चोर, रोगी, क्रोधी, चंडाल, मदोन्मत्त, गुरुतल्पग, बेरी, स्वामीवंचक, लोभी, तथा ऋषि, स्त्री, अरु बाल