________________
नवम परिच्छेद
१८१ चाहिये। अरु अभक्ष्य, अनन्तकाय, कंदमूल, परपर के अचित्त करे, रांधे हुये भी न खाने चाहियें; क्योंकि एक तो निःशूकता अरु दूसरी रसलंपटता तथा वृद्धयादि दोष का प्रसंग होता है, इस वास्ते न खाना चाहिये। तथा उकाला हुआ सेलरा, रांधा हुआ आदि कंद, सूरण, वैग. नादि, यद्यपि अचित है, तो भी श्रावक, प्रसंग दूषण त्यागने के वास्ते न खावे । तथा मूली तो पंचांग ही खाने योग्य नही, निषिद्धत्वात् '-निषिद्ध होने से । तथा सोंठ, हलदी, नाम अरु स्वाद के मेद होने से अभक्ष्य नहीं हैं । तथा उप्ण जल, तीन उबाले आ जायें, तब अचित होता है, यह कथन पिंडनियुक्ति में है। चावलों के धोवन का पानी जब नितर के निर्मल हो जावे, तब अचित्त होता है । तथा उप्ण जल की मर्यादा प्रवचनसारोद्धारादि ग्रन्थों में ऐसे लिखी है-त्रिदण्डोद्धृत उष्ण जल, उष्णकाल के चारों मास में पाच पहर अचित्त रहता है। यह चूरहे से उतारे पीछे की मर्यादा है। तथा वर्षा के चारों मास में तीन पहर अचित्त अरु शीत काल के चारों मास में चार पहर अचित्त रहता है। पीछे सचित्त होता है । जेकर ग्लान, बाल, वृद्धादि साधु के वास्ते मर्यादा उपरांत रखना होवे, तब क्षारादि वस्तु का प्रक्षेप करके रखना। फिर सचित्त नहीं होता है। यह कथन प्रवचनसारोद्धार के १३६ द्वार में है। तथा कोकड मोठ, मूंग अरु हरडादिक की मीजी-मिटक यह यद्यपि अचेतन हैं,