________________ 374 जैनवत्वादर्श प्रम, 36. सारपरिश्रम, 37. अंजनयोग, 38. चूर्णयोग, 39. हस्तलाघव, 40. पचनपाटव, 41. भोज्यविधि, 42. वाणिज्यविधि, 43. काव्यशक्ति, 44. व्याकरण, 15. शालिलण्डन, 16. सुखमंडन, 47. कथाकथन, 48. कुलुनगुंथन, 49. वरवेष, 50. सकल भाषाविशेष. 51. अभिधानपरिज्ञान, 52. भाभरण पहनना, 53. मृत्योपचार, 54. गुवाचार, 55, शाव्यकरण, 56. परनिराकरण, 57. धान्यरंधन, 58. केशबंधन, 59. वीणादि नाद, 60. वितंडावाद, 61. अंतविचार, 32. लोकन्यवहार, 63. अंत्याक्षरिका, 64. प्रश्नप्रहेलिका / ___अब की सर्व सांसारिक कल पूर्वोक्त कलाओं का प्रकरभूत है, इस वास्ते सर्व कला इन ही के अन्तर्भूत है। जैसे प्रथम लिपि कला के अठारह भेद दक्षिण हाथ से ब्राह्मी पुत्री को सिखाई, तिसके नान कहते हैं। 1. हंसलिपि, 2. भूतलिपि, 3. यक्षलिपि, 4. राक्षस लिपि, 5. यावनी लिपि, 6, तुरती लिपि, 18 प्रकार की 7. कीरीलिपि, 8. द्रावीडीलिपि, 9. संघवीलिपि लिपि, 10. मालवीलिपि, 11. नडीलिपि, 12. नागरीलिपि, 13. लाटीलिपि, 14. पारसीलिपि, 15, अनिमित्ती लिपि, 16. चाणकीलिपि, 17. मूल. देवी, 18. उड्डीलिपि / यह अठारह प्रकार की नामीलिपि, देशविदेश के भेद से अनेक तरे की हो गई, जैसे कि-१. लाटी, 2. चौड़ी, 3. डाहली, 1. कानडी, 5. गौरी, 6. सोरठी,