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________________ एकादश परिच्छेद 375 7. मरहठी, 8. कोंकणी, 9. खुरासानी, 10. मागधी, 11. सिंहली, 12. हाडी, 13. कीरी, 11. हम्मीरी, 15. परतीरी, 16. मसी, 17. मालवी, 18. महायोधी / तथा सुन्दरी पुत्री को वाम हाथ से अंकविद्या सिखाई / जो जगत् में प्रचलित कला है, जिनों से अनेक कार्य सिद्ध होते हैं, वे सर्व श्रीऋषभदेवने प्रवर्त्ताई हैं। तिस में कितनीक काल कई वार लुप्त हो जाती हैं, फिर सामग्री पाकर प्रगट भी हो जाती है, परंतु नवीन विद्या वा कला कोई नहीं उत्पन्न होती है / जो कलाव्यवहार श्रीऋषभदेवजीने चलाया है, वो सर्व आवश्यक सूत्र में देख लेना। ब्राह्मी जो भरत के साथ जन्मी थी, तिसका विवाह बाहुबली के साथ कर दिया / और बाहुवली के साथ जो सुन्दरी पुत्री जन्मी थी, तिसका विवाह भरत के साथ कर दिया। तब से माता पिता की दीनी कन्या का व्यवहार प्रचलित हुआ। श्रीऋषभदेवजी ने युगल अर्थात् एक उदर के उत्पन्न हुए बहिन भाई का विवाह दूर किया / श्रीऋषभदेवजी को देख के लोक भी इसी तरें विवाह करने लगे। श्रीऋषभदेवजी ने बहुत काल ताई राज्य करा / प्रजा के वास्ते सर्व तरें के सुख उत्पन्न हुए। इस हेतु से श्रीऋषभदेवजी को जैनी लोक जगत् का कर्ता मानते हैं। दूसरे मतवाले जो ईश्वर की करी सृष्टि कहते हैं, वे भी ईश्वर, आदीश्वर, जगदीधर, योगीश्वर, जगत् * यहा पर विवाह गब्द का प्रयोग सगपण याने वाग्दान अर्थ में है। इसका अर्थ लग्न न समझना /
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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