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________________ 501 द्वादश परिच्छेद में वैठे थे, अपने पाट की वृद्धि वास्ते अच्छा मुहूर्त देख करके महावीर से 1464 वर्ष और विक्रम से 664 वर्ष पीछे अपने पाट ऊपर सर्वदेव प्रमुख आठ आचार्य स्थापे / कोई एकले सर्वदेवसूरि को ही कहते हैं। बडे बड़ के हेठ सूरिपदवी देने के कारण तहां से वनवासी गच्छ का पांचमा नाम बडगच्छ हुआ / तथा प्रधानशिष्यसंतत्या ज्ञानादिगुणः प्रधानचरितैश्च वृद्धत्वाहगच्छ इत्यपि / 36. श्रीउद्योतनसूरि के पाट ऊपर सर्वदेवसरि हुए / यहां कोई एक तो प्रद्युम्नसूरि और उपधान श्रीमर्वदेवसूरि ग्रन्थ का कर्ता मानदेवसूरि, इन दोनों को पट्टधर नहीं मानते हैं। तिनके अभिप्राय से सर्वदेवसूरि चौतीसमे पाट पर हुआ, उस सर्वदेवसूरिने गौतमस्वामी की तरें सुशिष्य लब्धिमान् विक्रमसंवत् से 1010 वर्ष पीछे रामसैन्य पुर में श्री ऋषभचैत्य तथा श्री चन्द्रप्रमचैत्य की प्रतिष्ठा करी। तथा चन्द्रावती में कुंकणमन्त्री को प्रतिवोध के दीक्षा दीनी तिसने ही चन्द्रावती में जैनमन्दिर बनवाया था। तथा विक्रम से 1026 वर्ष पीछे धनपाल पण्डितने देशीनाममाला बनाई। तथा विक्रम से 1066 वर्ष पीछे उत्तराध्ययन की टीका करनेवाला थिरापद्रीयगच्छ में वादी वैताल शांतिसूरि हुये।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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